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लेखनी प्रतियोगिता -12-Apr-2023 ययाति और देवयानी

भाग 57 
महाराज नहुष और महारनी अशोक सुन्दरी अपने दोनों छोटे पुत्र वियाति और कृति को गुरुकुल में छोड़कर पुन: अपने  राजप्रासाद आ गये । पूरे रास्ते में उन्होंने आपस में कोई वार्तालाप नहीं किया । याति के व्यवहार ने उनके मन में हलचल उत्पन्न कर दी थी । याति का मन सांसारिक वस्तुओं में नहीं लगता है । वह अध्यात्म की ओर अग्रसर हो रहा है । यदि उसे अभी नहीं रोका गया तो एक दिन वह एक नामचीन ऋषि बन जायेगा । तब वह राजप्रासाद छोड़कर वन चला जायेगा । तब कैसा लगेगा उन्हें ? माता पिता के सामने जब कोई पुत्र ऋषि बनकर वन को चला जाता है तो वे कैसा अनुभव करते होंगे ? इस बारे में सोच रहे थे दोनों । 

ऐसा नहीं है कि याति वन गमन करने वाला पहला राजकुमार होगा । महाराज विश्वामित्र भी राजधर्म छोड़कर महर्षि बन चुके हैं । पर उनके महर्षि बनने की कथा कुछ और है । वे तो महर्षि वशिष्ठ को नीचा दिखाने के लिए ऋषि बने थे । पर क्या वे ऐसा कर पाये थे ? महर्षि वशिष्ठ तो ब्रहर्षि थे , उनमें धैर्य, क्षमा भरी पड़ी थी । विश्वामित्र राजर्षि कहलाते थे । इतनी तपस्या के पश्चात भी वे अपने "रजोगुण" पर विजय नहीं पा सके थे और उन्होंने महर्षि वशिष्ठ के सौ शिष्यों की उनके आश्रम में ही निर्मम हत्या कर दी थी । ईर्ष्या, क्रोध की अग्नि में दहकने का परिणाम यही होता है । ऋषि बनने के पश्चात भी उनकी ईर्ष्या समाप्त नहीं हुई थी । कामावेग को वे रोक न सके थे इसीलिए वे मेनका के सौन्दर्य से द्रवित हो गये थे । 

किन्तु याति में न तो किसी से कोई ईर्ष्या है और न ही उसे क्रोध आता है । वह तो अहिंसा में परम विश्वास रखता है । वह एक सन्यासी जैसा है ।  यदि उसे राजगद्दी सौंप दी गई तो वह अपने अहिंसा प्रेम के कारण सर्वप्रथम कार्य यह करेगा कि वह राज्य की सारी सेना को ही समाप्त कर देगा । सेना विहीन राज्य पर कोई भी आक्रमण कर सकता है । कोई भी पड़ोसी राजा हस्तिनापुर राज्य पर आक्रमण कर देगा । बिना सेना के राज्य किस तरह युद्ध लड़ेगा ? मतलब हस्तिनापुर की पराजय होना सुनिश्चत है । "संत याति महाराज" तो वैराग्य ओढ़कर आक्रमणकर्ता को राजगद्दी सौंपकर वन में चले जायेंगे । बेबस , असहाय, अनाथ प्रजा का क्या होगा ? नहीं, याति को अध्यात्म की ओर जाने से रोकना होगा । इसके लिए वे समस्त उपाय करेंगे । दोनों के मन मस्तिष्क में यही विचार चल रहा था । 

राजप्रासाद पहुंच कर महाराज और महारानी ने मंत्रणा की और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि याति को गुरुकुल से बुलवा लिया जाये और उसका भोग विलास के जीवन से साक्षात्कार करवाया जाये । याति की उम्र 18 वर्ष से अधिक हो गई थी । वह बहुत सुंदर लगता था । उसके लंबे काले बाल कंधों तक आकर झूलने लगे थे । चेहरा दाढी मूंछों से छिपने लगा था । उसके चेहरे पर मुनियों जैसा तेज था और आंखों में सागर जैसी शांति थी । मुख सदैव प्रसन्न मुद्रा में रहता था उसका । उस पर यौवन श्रावण मास की तरह कृपालु हो रहा था । इस वय में युवकों को सुन्दर युवतियों का साथ बहुत अच्छा लगता है । उनसे बातें करना , उन्हें देखकर अकारण मुस्कुराना , चोरी चोरी देखना सब अच्छा लगता है । 

महारानी ने सोचा कि याति के चारों ओर यदि सुन्दरियों का घेरा डाल दिया जाये तो क्या वह इसे तोड़ पायेगा ? जब विश्वामित्र जैसे ऋषियों को सौन्दर्य ने अपने कदमों पर झुका दिया तो याति इनसे कैसे बच पायेगा ?  इससे क्या पता उसकी अभिरुचि ही परिवर्तित हो जाये ! और यदि उसकी अभिरुचि परिवर्तित हो गई तो फिर याति एक अद्वितीय सम्राट सिद्ध हो सकता है ! महारानी ने महाराज को अपने मन की बात कह दी थी । 

महाराज नहुष ने याति के लिए एक पृथक "श्रंगार प्रासाद" का निर्माण करवाया । इस प्रासाद की दीवारों पर स्वर्णिम आवरण चढाया गया । हीरे, मोती, रत्न, मणि, माणिक्यों से इस प्रासाद की भित्तियों को अलंकृत करवाया गया । इन भित्तियों पर सुन्दर सुन्दर चित्र टंगवाये गये जो प्रकृति की विभिन्न प्रकार की सुन्दरता यथा नदियां, झरने, पर्वत, घाटी आदि का वर्णन कर रहे थे । 

दालानों में विभिन्न प्रकार की कमनीय व रमणीय मूर्तियां लगवाई गईं । अधिकांशत: मूर्तियां सुन्दर स्त्रियों की थीं जिनके पारदर्शी वस्त्र उनके सौन्दर्य को और अधिक निखार रहे थे । प्रत्येक मूर्ति एक पृथक भाव को प्रदर्शित कर रही थी । कोई सुन्दरी अपने घने लंबे काले केशों को संवार रही थी तो कोई सुन्दरी अपनी आंखों में काजल लगा रही थी । कोई आईने में स्वयं को देखकर स्वयं पर ही मुग्ध हो रही थी तो कोई माथे पर बिन्दी लगाकर प्रसन्न हो रही थी । एक युवती अपने अधरों पर लाली लगा रही थी तो एक युवती शीशे में अपनी चिबुक पर उभरे एक छोटे से काले तिल को देखकर गर्वित हो रही थी । एक तरुणी की आकृति अंगड़ाई लेते हुए बनाई गई थी । इस मूर्ति में मूर्तिकार ने अंगड़ाई लेते समय एक युवती के मन में आने वाले समस्त भावों का उत्कृष्ट प्रदर्शन किया था । अंगड़ाई लेते समय उसका वस्त्र उसके वक्षों से खिसक कर नीचे फर्श पर गिर पड़ा था जिससे उसके दोनों उन्नत उरोज स्पष्ट दिखाई दे रहे थे जैसे वे कह रहे हों कि पौरुष की शरण स्थली उनका "मध्य स्थान मिलन बिन्दु" ही है । उसके हल्के रक्ताभ कुच वलय उरोजों के सौन्दर्य में चार चांद लगा रहे थे । इस कारण उभय कुच अभिमान से और भी उत्तंग होकर आकाश की ओर देखकर मुस्कुरा रहे थे जैसे वे अंबर से कह रहे हों कि उन्होंने अंबर को सौन्दर्य के कदमों तले दबा दिया है । क्षीण कटि विशालकाय वक्षों के बोझ से दबी दबी असहाय सी नजर आ रही थी जिसमें छोटी सी नाभि एक नदी में पड़ने वाले विशाल गह्वर सी आकर्षक लग रही थी । कटि में रत्न, आभूषण जड़ित स्वर्ण करधनी न केवल कमर की शोभा बढ़ा रही थी अपितु उस युवती के निजी अंग को भी आच्छादित कर रही थी । विशाल नितम्ब सबके आकर्षण का केन्द्र बने हुए थे और रोम रहित स्निग्ध जघन स्फटिक शिला और कदली स्तम्भ को भी पराजित कर रही थीं । उन मूर्तियों के सौन्दर्य को देखकर अतीन्द्रिय योगियों के मन में भी "काम" का प्रवेश हो सकता है । कुछ मूर्तियां "कामकला" को दर्शाने वाली थीं और महर्षि वात्स्यायन द्वारा लिखित पुस्तक "कामशास्त्र" में वर्णित विभिन्न "आसनों" को प्रदर्शित कर रही थीं । इस प्रकार महल को नाना भांति से सजाकर भोग विलास का केन्द्र बनाया गया था । 

राजकुमार याति की सेवा सुश्रुषा के लिए एक से बढकर एक सुन्दर युवतियों को नियुक्त किया गया और उन्हें इसके लिए भलीभांति प्रशिक्षित भी किया गया । इस प्रकार समस्त तैयारियां कर लेने के पश्चात याति को "गुरुकुल" से लाकर "श्रंगार प्रासाद" में रखा गया । 

याति की सेवा के लिए सैकडों विलासिनियों की नियुक्ति की गई जो राजकुमार की सेवा में सदैव तत्पर रहती थीं । वे राजकुमार के एक इशारे पर उन्हें जगत का समस्त सुख देने के लिए आकांक्षी थीं । श्रंगार प्रासाद में ही एक बहुत सुंदर तरणताल बनवाया गया था जिसमें पंचनद प्रदेश से जल मंगवा कर उसमें भरा गया था । उस जल में मोगरा , चम्पा , गुलाब जैसे अनेक पुष्पों के रस से सुगंधित इत्र बनवाकर  इस तरणताल में डालकर इसके जल को सुगंधित बनाया गया था । दस पंद्रह सेविकाऐं निर्वस्त्र होकर तरणताल में जलक्रीड़ा करती थीं और याति को अपने अंग संचालन से लुभाने का प्रयास करती थीं । वे कभी आपस में आलिंगन करतीं , कभी चुंबन करतीं तो कभी एक दूसरे का कुच मर्दन करके आनंद से सीत्कार भी भरती थीं । किन्तु याति पता नहीं किस मिट्टी का बना हुआ था उनकी ओर एक बार भी दृष्टिपात नहीं करता था । वे भांति भांति की चेष्टाओं द्वारा याति को लुभाने का प्रयास करती किन्तु याति सदैव ईश्वर के "ध्यान" में लीन रहता था । याति के इस रूखे व्यवहार से वे सेविकाऐं प्रसन्न नहीं थीं किन्तु अपनी अप्रसन्नता को वे प्रकट भी नहीं कर सकती थीं । 

याति के लिए प्रतिदिन छप्पन प्रकार का भोजन बनता था । कभी क्षीरपाकेवन्ना (खीर के जैसा तरल पदार्थ), अपूपा (पुए), पुरोद (मीठा दलिया) , एपिल्पा (कलाकंद जैसी मिठाई) , नवनीत कुंज, श्रीखंड तो कभी क्षीर , हलवा , जलेबी , इमरती आदि मिष्ठान्न बनते थे । कभी रबड़ी, रसमलाई, केक , घेवर, मक्खन बड़ा , मूंग बेसन की चक्की तो कभी कुछ और । भोजन में मक्खन और घृत से बने अनेक पकवान भी होते थे । पूरी, चपाती, चावल आदि के साथ पीप्पली, मारीका,  घनकरंभ, परिवाद, पुरोदरा, पयसिद् आदि व्यंजन भी बनाए जाते थे । पेय पदार्थों में संद्या (दूध व दही का मिश्रण) , कैमे (दूध, दही, नवनीत, मधु का मिश्रण) , सुरा (जड़ी बूटियों का आसव) , दधिमंथा, तकरा आदि प्रमुख थे । फलों में उडुवंदा (अंजीर) , बेर, जामुन, गन्ना, आम, करवंधु और कुवला प्रमुख थे । 

शयन के समय कुछ सेविकाऐं पारदर्शी वस्त्रों में याति के शयन कक्ष में आती थीं और उसे अपने हाथों से सोमरस पिलाने का प्रयास करती थीं । कुछ तो नयनों से और कुछ अपने मदमाते सौन्दर्य से उसे मदमस्त कर देना चाहती थीं । किन्तु याति उन्हें दूर से ही देख लेता था और तुरंत पद्मासन में बैठकर "ओम्" का जाप करने लग जाता था । वे उसके नेत्र खुलने का इंतजार करती रहती थीं किन्तु याति इसी आसन में घण्टों तक "ध्यान" में मग्न रहता था । 

बेचारी सेविकाऐं इंतज़ार में खड़े खड़े थक जाती थीं । उनके प्रसन्न मुखों पर उदासी विराजमान हो जाती थी और उनके अंगों में लगे भांति भांति के केसर , चंदन , अगरु के लेप की सुगंध भी बहुत मद्धिम हो जाती थी । जीवन की यही वास्तविकता है । यह संसार, यह सुन्दर शरीर, यह कांति, यह सुगंध, यह रूप यौवन , सौन्दर्य सब क्षणभंगुर है , क्षर है, विनाशी है , अपरा स्वरूप है । 

और ब्रह्म शाश्वत, अविनाशी, नित्य निरंतर है । वस्तुत: वही चेतन है बाकी सब जड़ है । किन्तु मनुष्य सारी जिन्दगी "जड़"(धन दौलत , सौन्दर्य) के पीछे भागता रहता है और चेतन (ब्रह्म) को भुला देता है । "जड़" इसीलिए भाव खाता है क्योंकि मनुष्य की आंखों पर माया मोह का परदा पड़ा हुआ है । जब चेतन मन द्वारा सत्य (ब्रह्म) को पहचान कर असत्य "सौन्दर्य) को दुत्कार दिया जाता है तो सौन्दर्य को बहुत पीड़ा होती है । सौन्दर्य तो सदैव अपनी प्रशंसा का आदी रहा है । सारी दुनिया सौन्दर्य के पीछे भागती सी प्रतीत होती है इसलिए सौन्दर्य को मिथ्याभिमान हो जाता है कि जगत में सर्वोच्च सत्ता केवल उसी की है । परन्तु जब कोई याति जैसा "योगी" सौन्दर्य के सामने आ जाता है जो सौन्दर्य को कोई भाव ही नहीं देता है तो इससे सौन्दर्य को बहुत ठेस पहुंचती है । उसका गुरूर एक पल में मिट्टी में मिल जाता है । तब सौन्दर्य भग्न हृदय की तरह क्रंदन करने लगता है । 

ब्रह्म की उपासना करने वाले लोग सौन्दर्य को अपनी साधना से अपने पैरों तले कुचल डालते हैं । पर प्रकृति की माया भी बहुत अद्भुत है । योगी से तिरस्कृत सौन्दर्य अपमानित होकर भी उसी योगी के पीछे भागता रहता है जिसने उसका तिरस्कार किया था । यही सत्य है । जिस वस्तु के पीछे हम भागते हैं, वह वस्तु हमसे और दूर हो जाती है किन्तु जब हम उसके पीछे भागना बंद कर देते हैं तब वही वस्तु हमारे पीछे भागने लगती है । 

सेविकाऐं याति को तपस्या में लीन देखतीं तो वे उस पर और अधिक मोहित हो जातीं थीं । वे केवल इतना सा चाहतीं थीं कि याति उन्हें एक भरपूर नजर से देख ले बस ! पर हाय रे विधाता ! उन्हें याति की एक नजर भी नसीब नहीं हुई । बेचारी , पौरुष की चाह अपने हृदय में दबाये शांत बैठी रहतीं । 
जब बहुत दिनों तक इसी प्रकार से क्रम चलता रहा तो सभी सेविकाऐं सौन्दर्य के तिरस्कार से अपमानित होकर महारानी अशोक सुन्दरी के पास जा पहुंची । उन्हें देखते ही महारानी बहुत प्रसन्न हुईं और आशा से भरकर कहने लगी "याति में कुछ परिवर्तन हुआ क्या" ? उनके कर्ण "हां" सुनने को अधीर हो रहे थे । 

सेविकाऐं बेचारी क्या कहतीं ! वे तो यहां शिकायत लेकर आईं थीं किन्तु यहां तो वे ही पराजित लग रही थीं । सेविकाओं की प्रमुख "सुरम्या" कहने लगीं "महारानी जी, राजकुमार याति न तो हमारी ओर देखते हैं और न ही हमारे सुडौल अवयवों को देखते हैं । हमने उनका ध्यान आकर्षित करने के लिए सारे प्रयत्न करके देख लिए किन्तु उन्होंने कभी भी किसी भी सेविका की ओर एक बार भी नहीं देखा । 
एक दिन तो राजकुमार ने गजब कर दिया । वे आंगन में खड़े हुए थे । एक सेविका उधर से गुजरी तो उसने राजकुमार का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए जानबूझकर अपना उत्तरीय भूमि पर गिरा दिया और अनजान बनकर अनावृत वक्षों से वह राजकुमार की ओर चलती चली गई । यकायक राजकुमार आगे बढे, उन्होंने वह उत्तरीय फर्श पर से उठाया और उसे उस सेविका को देते हुए बोले "आपका वस्त्र नीचे गिर गया था , मैंने उठाकर आपको दे दिया है । वस्त्र गिर गया तो कोई बात नहीं पर कृपा करके अपना चरित्र नीचे मत गिराइये, उसे उठाने वाला यहां कोई नहीं मिलेगा" । अब आप ही बताइये कि ऐसे पत्थर हृदय का हम लोग क्या करें ! उस दिन वह लड़की कितना रोई थी ! सौन्दर्य अपना इतना अपमान भला कैसे सहन कर सकता है, महारानी जी" । कहते कहते सुरम्या का गला रुंध गया था । 

उन सबकी बात सुनकर महारानी को अपना यह प्रयोग असफल होता हुआ दिखने लगा था । उनके मस्तक पर चिंता की लकीरें उभर आईं थीं । 

श्री हरि 
22.7.23 

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